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सात्क्षात्कार

हिन्दी रचना जगत में बहुत कम ही ऐसे लोग है, जिन्होंने कविता या अन्य किसी विधा में लेखन के अलावा चित्रकला और पुरातत्व में भी काम किया हो। आश्चर्य यह भी कि पुरातत्व में काम करने वाले रचनाकार और भी मुश्किल से मिलते हैं। किंतु जगदीश गुप्त जी ने इन तीनों विधाओं में साधिकार और उल्लेखनीय कार्य किया। वह मनुष्य की इच्छाशक्ति की अदम्यता पर विश्वास करते थे। प्रस्तुत है कवि, चित्रकार जगदीश गुप्त से धनंजय सिंह का संभवतः अंतिम साक्षात्कार अप्रतिम चित्रकार एवं कविता के कीर्ति पुरूष, भारत भारती सम्मान प्राप्त डा0 जगदीश गुप्त हिन्दी रचना जगत के उन वरिष्ठ लेखकों में से रहे हैं जो हमेशा नीची निगाह किए चलते रहे हैं। इलाहाबाद जैसे शहर में, जहां लेखक लिखने से ज्यादा हल्ला मचाने में विश्वास करता हो, वहां जगदीश गुप्त का अपवाद बने रहना एक करतब ही कहा जाएगा। 1950 में डा0 गुप्त जब इलाहाबाद विश्वविद्यालय में लेक्चरर के रूप में आए, उन दिनों हिंदी में दो आंदोलन चरम पर थे, एक प्रगतिवाद और दूसरा प्रयोगवाद। रघुवीर सहाय, धर्मवीर भारती, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, लक्ष्मीकांत वर्मा एवं जगदीश गुप्त जैसे बहुत-से कवि तार सप्तक से बाहर होकर भी प्रयोगवाद का मुहावरा अपना चुके थे। पचास के दशक के पूर्वार्द्ध में जगदीश गुप्त ने एक अनियतकालीन काव्य संकलन निकाला-नई कविता जो अपने समय का बेहद सुरूचि पूर्ण और प्रतिनिध संग्रह था। हिंदी रचना जगत में बहुत कम ही ऐसे लोग हैं, जिन्होंने कविता या अन्य किसी विधा में लेखन के अलावा चित्रकला और पुरातत्व में भी काम किया हो। आश्चर्य यह भी है कि पुरातत्व में करने वाले रचनाकार और भी मुश्किल से मिलते हैं। किंतु जगदीश गुप्त जी ने इन तीनों विधाओं में साधिकार और उल्लेखनीय कार्य किया। 26 मई को प्रातः चार बजे सिविल लाइन्स, इलाहाबाद में स्थित हार्ट लाइन अस्पताल में पिछले लगभग पंद्रह दिनों से जिंदगी और मौत के बीच संघर्ष करते हुए उन्होंने अचानक दम तोड़ दिया। डा0 गुप्त हृदय रोग के कारण काफी अस्वस्थ चल रहे थे, पिछले दस वर्षों से मेरा उनसे आत्मीय संबंध एवं सान्निध्य रहा है। कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि जिन्हें मैं अपना आदर्श गुरू मानता आया हूँ, जिन्होंने समय-समय पर कविता, चित्र तथा लेखन जैसी विधाओं के लिए निरंतर मुझे प्रेरित किया है, उनके विषय में मैं क्या-क्या लिखूँ, कितना लिखूं और क्या छोड़ दूं। इतने अधिक संस्मरण हैं उनके साथ जिन्हें मैं शब्दों में कह नहीं सकता। हां कभी लेख के माध्यम से अथवा पुस्तक के रूप् में अवश्य प्रस्तुत करूँगा, ऐसा संकल्प है। ऐसे श्रेष्ठ पुरूष के विषय में मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि उनमें जो सबसे बड़ी विशेषता रही है, वह है मनुष्य की इच्छाशक्ति की अदम्यता पर विश्वास और आजीवन संघर्ष करते रहने की नियति। ये बातंे उनकी कविताओं में भी उपस्थित मिलती है, जो इस प्रकार है नहीं उस भांति मैं डूबा/चलाए हाथ/लहरों से लड़ा/ मानी नहीं मैंने पराजय अंत तक/ विश्वास अपने पर किया/ तो क्या हुआ डूबा अगर/क्या पार जाने से इसे कम कहेगा कोई? इसके अलावा अक्सर हमें यह कविता की यह पंक्ति सुनाया करते थेः टूटे नहीं इंसान, बस संदेश यौवन का यही, सच हम नहीं सच तुम नहीं, सच है सतत संघर्ष ही। अभी कुछ वर्ष से वह बहुत ज्यादा अस्वस्थ हो गए थे, तब भी उनमें सृजन करने की ललक और अदम्य जिजीविषा विद्यमान थी। हृदय रोग के कारण वह जब दिल्ली में पंत अस्पताल में भर्ती थे उन दिनों भी वह रेखाओं के माध्यम से अपने जीवनानुभव को अभिव्यक्ति देते रहे। छिहत्तर वर्षीय जगदीश गुप्त ‘बाईपास सर्जरी’ और उसके बाद इंफेक्शन के कारण और भी कमजोर होते गए, इसके बावजूद वह लगातार विभिन्न समारोंहों, व्याख्यानमालाओं एवं कला संबंधी कार्यक्रमों में बढ़ चढकर हिस्सा लेते रहे। पिछले दिनों लंबे समय तक स्वस्थ रहने के बाद वह पुनः अस्वस्थ हो गए और धीरे-धीरे उनकी हालत बिगड़ती ही गई। इतनी अस्वस्थता के बावजूद वह किसी भी मुद्दे पर बातचीत करने के लिए हमेशा तैयार रहते थे। अभी जब 20 अप्रैल को वह प्रीती हास्पिटल में भर्ती थे तब मैं उनसे मिलने गया और देखा कि अभी भी उनकी आंखों में सर्जना की वही दीप्ति दिखाई दे रही थी। उनकी इस छवि को देखकर मेरे भीतर अनेंकों प्रश्न उभरने लगे और मैंने उसी बीच उनसे उनकी साहित्यिक गतिविधियों एवं चित्रयात्रा, जीवनयात्रा के संदर्भ में बातचीत करने का आग्रह किया, और वह सहज ही इसके लिए तैयार हो गए। उन्होंने मेरे जिज्ञासा भरे सवालों के उत्तर बहुत ही गंभीरता एवं पूरी तन्मयता के साथ दिए। उनसे किए इसी समालाप का विस्तृत विवरण प्रस्तुत हैः प्रश्न: जीवन के लंबे साहित्यिक अनुभवों के बीच आज आपकी दृष्टि में साहित्य का क्या स्तर है? उत्तर आज महसूस कर रहा हूं कि लोग साहित्य से दूर होते जा रहे हैं। सबसे अजीब बात तो यह है कि लोग साहित्यकारों को भी भूल गए हैं, आज कई युवा मेरे पास आते हैं और मुझसे निराला, महादेवी, मुक्तिबोध, अज्ञेय के बारे में पूछते हैं। यह हमारे समाज की विडंबना हो गई है कि हम अज्ञेय, मुक्तिबोध, निराला को भी नहीं जानते हैं। पूरे छिहत्तर वर्ष पूर्ण कर लेने के बाद आज आपका काम करने का ढंग तथा आपकी दिनचर्या क्या है? आदमी कर्मशीलता से पहचाना जाता है। ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचना’ -श्रीमद्भागवत गीता का यह वाक्य मुझे हमेशा प्रेरणा देता रहा है। जहां तक दिनचर्या का प्रश्न है, चूंकि अवकाश प्राप्त होने के बाद दिनचर्या स्वतः निर्धारित है अतः उसमें अंतर आता ही नहीं। अगर कहीं आना-जाना और कुछ लोगों का आना हुआ तो कुछ अंतर अवश्य ही पड़ता है, सवेरे-सवेरे ब्रह्य वेला में उठना मेरे स्वभाव का अंग रहा है। कभी चार से पहले, कभी चार के बाद उठकर कुछ कविता जैसी पंक्तियां लिख लेताहूँ, सवेरे अखबार आ जाते हैं, तो मैं उन्हें शत्रु मानता हूं (हंसते हुए) शत्रु आ गया तो उसके बाद कुछ भी काम नहीं होता। मैं देखता हूं कि बहुत चीजें ऐसी हैं, जिसको न पढ़े तो लगता है कि जीवन से हम संपृक्त नहीं हुए। रात्रि में, दस-ग्यारह बजे तक सो जाना, पांच साढ़े पांच घंटे की नींद लेना और बिन जगाए ही उठ जाना मुझे सहज ही लगता है। आप लंबे समय तक महाकवि निराला जी से जुड़े रहे, यदि उनसे संबंधित कोई संस्मरण याद हो तो बताएं। हां, एक संदर्भ मैं आपको बताता हूं। उन दिनों मैं दारागंज मोतीमहल में रहता था, जहां निराला जी भी रहते थे। लगभग तीस साल तक मैं निराला जी के सान्निध्य में रहा। वैसे निराला जी कभी अपने घर में नहीं रहे। जीवनपर्यत वह कमलाशंकर सिंह के यहां अतिथि के रूप् में रहे। एक बार एक समारोह के दौरान मेरी मुलाकात उनसे हुई। उन्होंने मेरा हाल-चाल पूछा। मैं उन दिनों बहु परेशान चल रहा था। मैंने परेशानी का कारण उन्हें बताया, मेरी बेटी बीमार चल रही है, उसे माता निकल आई है। फिर वह अन्य लोगों से बातचीत करने में गुम हो गये। अगले दिन मैंने देखा, वह स्वयं मेरे घर मेरी बेटी को देखने पहुंचे। यह घटना मुझे आज तक याद है। इसी समय ’परिमल’ के साथ ही ’साहित्यकार संसद’ का भी शुभरंभ हुआ था। दोनों अपना दायित्व निभाने में कहां तक सफल सिद्ध हुए? सन् 1944 से आरंभ होकर पच्चीस सालों तक ’परिमल’ ने अपना ऐतिहासिक दायित्व पूर्ण किया। यह संस्था समय-समय पर साहित्यिक संगोष्ठियां आयोजित करवाती थी, जिसमें साहित्य के विविध रूपों पर चर्चा भी होती थी। आज तो वैसी गोष्ठियां कहीं सुनने को भी नहीं मिलती। इसी सन् में ही ’साहित्यकार संसद’ का भी शुभारंभ हुआ। उन दिनों निराला जी ’साहित्यकार संसद’ में रहने लगे थे। कुछ दिनों तक पंत जी भी साहित्यकार संसद में रहे। इसकी शुरूआत में ही दिनकर जी ने अपनी प्रसिद्ध कविता की एक पंक्ति को तेजस्वी स्वर में सुनायाः तान-तान फन व्याल कि तुझ पर मैं बांसुरी बजाऊं यह कविता संसद के प्रांगण में ही नहीं, बल्कि हम लोगों के मन में भी गूंजती रही। ‘साहित्यकार संसद’ के संस्थापक कौन थे ? यदि उनके नामों का उल्लेख करेंगे तो बेहतर होगा। ‘साहित्यकार संसद’ के संस्थापक लोगों में सभी उल्लेखनीय है। रायकृष्ण दास, मैथिलीशरण गुप्त, उनके अनुज सियाराम शरण गुप्त, माखन लाल चतुर्वेदी तथा स्वयं महादेवी वर्मा जी थीं। आपने एक समय काफी आवरण चित्र (कवर डिजाइन) बनाए। आज उन दिनों को याद करके आप कैसा अनुभव करते हैं? मेरा उपेंद्रनाथ ’अश्क’ जी से बहुत ही घनिष्ठ संबंध रहा है। उनकी पुस्तकों पर बहुत से आवरण चित्र मैंने ही बनाए हैं। उन दिनों पाठक भी मेरी कला से इतने प्रभावित थे कि जो पुस्तकें खरीदते थे, उस पर मेरी कला वाली पुस्तक को प्राथमिकता देते थे। प्रसाद जी, महादेवी जी, नंद दुलारे वाजपेयी जी तथा अन्य लोगों के जो प्रकाशन भारती भंडार से होते थे उनका कला रूप मुझे ही निर्धारित करना होता था। आज मुझे ऐसा अनुभव होता है कि लोग कला की महत्ता को भूलते जा रहे हैं। मैने अपने जीवन की अधिकांश बातें अपनी कविता और रेखाचित्रों के माध्यम से कही है। आपने चित्र के साथ कविता और कविता के साथ चित्र बनाए है। क्या यह बताएंगे कि इन दोनों के बीच आप किस प्रकार सामंजस्य रख सके? स्वयं क्या है अपने भीतर, कौन-सी चित्र प्रवृत्ति जागृत होती है और कौन-सा संकल्प प्रकट होता है - इसका कोई विधान नहीं है। रचना इसीलिए प्रेरणा से संबद्ध मानी जाती है, कविता के भीतर चित्रात्मकता रहती है। मैंने लिखा भी –‘शब्दों में सोया हुआ काव्य’। इसी तरह चित्रों में कविता पहचानी जाती है, एक युग था जब चित्र कविता के साथ प्रकाशित होते थे, या चित्रों पर कविता पंक्तियां भाव को उजागर करने के लिए दे दी जाती थीं। माधुरी, चांद, विशाल भारत के युग में ऐसा बहुधा होता था। बाद के क्रम में पत्र-पत्रिकाओं का रूप् बदल गया और उनकी प्रवृत्तियां भिन्न हो गई - कविता, कविता के रूप में और चित्र, चित्र के रूप् में । जहां तक मेरा प्रश्न है, मैंने कई जगह अपनी बात कही है और कई कविताओं में उसे निरूपित भी किया है। आपने जब साहित्य जगत में प्रवेश किया था, तब के साहित्यिक वातावरण में और आज के साहित्यिक वातावरण में सबसे बड़ा अंतर क्या लगता है? अंतर तो निश्चित रूप् से हैं, पर सबसे बड़ा अंतर क्या है - यह कहना कठिन है। आज अधैर्य सबसे ऊपर है। कोई भी आदमी इसके लिए तैयार नहीं है, कि अधिक अध्ययन करना पड़े और अधिक श्रम करना पड़े जिससे और अधिक कर्मशीलता जागृत रहे। ‘शार्ट कट’ की संस्कृति अपना ली है लोगों ने। आप ‘परिमल’ की शुरूआत से रजत जयंती पर्व तक लगभग छह वर्षों तक संयोजन रहे हैं। इस संस्था ने आपके जीवन को किस रूप में प्रभावित किया? जब निराला जी जीवित थे, उस समय कुछ साहित्यकारों ने मिलकर ‘परिमल’ संस्था बनाई। मैं भी उस संस्था जुड़ा रहा। ‘परिमल’ संस्था हम लोगों के साथ जीवन शक्ति के रूप् में आई। ‘परिमल’ शब्द परिमल नामक रचना से प्रेरित है, साथ ही आजीवन हम लोगों को निाराला जी का स्नेह वरदान मिलता रहा। लेखन विधा की प्रेरणा कब और किससे प्रभावित होकर मिली? मेरी माता जी के जीवन काल में जो पुस्तकें उनके साथ रहती थीं उनमें एक दिनचर्या नामक पुस्तक थी। मैं नहीं जानता था कि कोई व्यक्ति साहित्यकारों और कलाकारों की दिनचर्या को एकत्र करने का संकल्प करेगा। तभी से मैंने लिखना कर लिया, तो लिख रहा हूं। आपने मां के लिए नाम से एक लंबी कविता लिखी हैं, जिसका तमिल अनुवाद हिंदुस्तानी एकेडमी से मूल सहित प्रकाशित हो चुका है, कृप्या अपनी मां के बारे में हमें कुछ बताए? मेरी बहुत-सी बातें मेरी माता जी ही बता सकती हैं, जिनके न रहने पर मां के लिए नाम से एक लंबी कविता लिखी। उसे लिखते समय मेरे भीतर आत्मनिरीक्षण की प्रवृत्ति जागी। उसी ने मुझे फिर सक्रिय बनाया है, साथ ही मां के लिए मेरा विशाल चित्र इस पुस्तक मेंलघु रूप् में प्रकाशित हुआ है और अंत में मां का रेखांकन भी है, जो मैने उनके जीवन काल में बनाया था। माता जी दिवंगत हो जाने पर लगभग एक महीने मैं अपनी पीड़ा को, अभाव को स्मृतियों को साकार करते हुए उन्हें शब्दबद्ध करने के क्रम में और भी अधिक संलग्न रहा। संलग्न रहने में बहुत दूर तक उनका अभाव भाव में परिणत हो गया। जो लोग उस कविता को पढ़तेहैं , वे लोग भी ऐसा अनुभव करते हैं। आज धर्मवीर भारती, अमृतराय, हरिवंश राय बच्चन जैसे अनेक साहित्यकार इलाहाबाद छोड़कर बंबई चले गए, लेकिन अपने इलाहाबाद को ही अपना निवास स्थान चुना। क्यों? हां, यह सत्य है कि बहुत-से साहित्यकार प्रयाग भूमि को छोड़कर अन्य शहरों में बस गए, मैंने भी कई जगह जाकर देखा है कि आत्मीयता का वातावरण जो रचना को संभव बनता है वह इलाहाबाद में विशेष है। इसीलिए मुझे लगता है कि इलाहाबाद ने ही मेरे भीतर एक रचनाकार की आग को दहकाए रखा। इलाहाबाद में मेरी सबसे पुरानी पहचान गोपेश जी से थी। उन्हीं के साथ पं0 अमरनाथ झा और फिराक साहब के व्यक्तितव के निकट आने का अवसर मिला। आपने एक लंबी काव्य यात्रा संपन्न की है, उन पड़ावों की ओर जब आप दृष्टिपात करते हैं तो क्या किसी सार्थकता अथवा कृतार्थता का बोध होता है? मेरे कलागुरू आचार्य क्षितींद्र नाथ मजूमदार थे जिनसे मैंने वाश टेक्निक सीखी और अनेक चित्र इस शैली में बनाए। ‘दीप श्रृंखला के मेरे चित्र इसी से प्रेरित हैं। इससे पहले भी बहुत से चित्र जैसे ‘रतिकाम’ आदि। मेरे पिता जी का देहावसान देहरादून में उस समय हुआ जब मैं दस साल का भी नहीं था। इसके बाद माता जी को शोक वर्ष के रूप् में शाहाबाद में रहना पड़ा। वह मुझे शिक्षा देने के लिए सीतापुर, मुरादाबाद, कानपुर और अंततः इलाहाबाद आकर रहीं। मां के लिए जो कविता पुस्तक मैने लिखी है उसमें मां के न रहने पर मैने अपने भीतर उनकी छवि को मूर्त करते हुए और आत्म परितोष के लिए काव्य का रूप् प्रदान किया गया अनेक साहित्यकारों ने इस रचना के लिए मुझे सराहा है। मैं इसका श्रेय स्वयं माता जी को देता हूं। मेरी माता जी का चरण स्वर्श एवं आशीर्वाद ग्रहण करने आचार्य विष्णुकांत शास्त्री, धर्मवीर भारती, रामकुमार वर्मा आदि आते थे। ये लोग हमेशा उन्हें अपनी माता के रूप में देखा करते थे। आप एक साहित्यालोचक भी रहे हैं। नई कविता के कवि तथा त्रयी में आपने अज्ञेय की आलोचना करते हुए अन्य कवियों का पक्ष प्रस्तुत किया। आज आपकी नजर में इस सदी के सबसे बड़े आलोचक है? यह सभी जानते हैं कि रामविलास शर्मा आज भी सर्वोच्च पद रखते हैं, यद्यपि नामवर सिंह उनको छोटा करने की चेष्टा में लगे रहते हैं। जहां तक नई कविता का संदर्भ है, दोनों आलोचक नई कविता को अज्ञेय से जोड़कर सही मूल्यांकन नहीं कर पाते, अज्ञेय से संबद्ध होने के कारण। नामवर जी मुक्तिबोध को सर्वश्रेष्ठ कवि बताते हैं जबकि अज्ञेय जी ने ही तार सप्तक में मुक्तिबोध को पहली बार प्रस्तुत किया। मैं मानता हूँ कि कविता स्वयं किसी आलोचक की मोहताज नहीं होती, आलोचक अवश्य कविता का मुखापेक्षी होता है। ब्रज भाषा और नई कविता शैली-दोनों ही में आपने रचनाएं की है। दोनों की काव्य-भाषा के बीच आप किस प्रकार सामंजस्य रख सके? एक जमाने में ब्रज भाषा का इतना वर्चस्व था कि हिंदी कविता भी भरतेन्दु की दृष्टि में ब्रज भाषा कविता थी। लोग मानते थे - जो न जाने ब्रज भाखा, ताहि साखा मृग जानिए। मैंने छंद शती की विस्मृत भूमिका में नवीनता की पहचान को भाषा से ऊपर प्रतिष्ठित किया है। हिन्दी साहित्य में यह विचित्रता है कि एक सौ-सवा सौ वर्ष के भीतर ब्रज भाषा में ऐसा रूपांतर हुआ कि खड़ी बोली सर्वोच्च प्रतिष्ठिा पा गई। अयोध्या प्रसाद खत्री जैसे लोग भले ही अब याद न किए जाएं पर उनका योगदान चिर-स्मरणीयं है। मैं खड़ी बोली और ब्रज भाषा में द्वंद्व नहीं मानता हूं- ’मोरे भरत राम द्विअ आंखी।’ यही भाव मैं खड़ी बोली और ब्रज भाषा के प्रति रखता हूँ और अंततः निद्र्वद्व रहता हूं। आपने इतना कुछ लिखा है और इस अवस्था में भी इतना अधिक रमकर लिख रहे हैं। आज जब आप अपनी रचनाओं को पुनः देखते हैं तो कैसा अनुभव करते हैं। हम अपनी रचनाओं को जब दुबारा पढ़ते हैं तो लगता ही नहीं कि हमने ही लिखी है और जब लगता है तब लगता है कि उसको जोड़ने वाले सूत्र भी होने चाहिए जिससे हम यह जान सकें कि यह रचनाएं हमने क्यों लिखी। ‘क्यों’ का उत्तर रचनाकार नहीं देता, रचना अवश्य देती है। हम कभी-कभी एक बेचैनी का अनुभव करते हैं-सब जानत प्रभु प्रभुता सोई, तदापि कहे बिना रहा न कोई कहने की बेचैनी रचना का मूल धर्म है। इसके लिए एक शब्द है ‘विवक्षा’-कहने की उत्कंठा और मैं अपने आप कहता हूं ’कवि वही जो अकथनीय कहे’ किंतु सारी विषमताओं के बीच मौन रहे। क्या ऐसा कुछ है जो आप समझते हैं कि छूट गया है और जिसे आप पर हर हाल में पूरा कर लेना चाहते है? हां, बहुत-से संकल्प हैं जो मूर्त नहीं हुए, बहुत सी रचनाएं प्रकाशित नहीं हुई, बहुत से रेखाकन संयोजित होकर प्रदर्शित नहीं हुए ‘जैसे’ माघ मेले के संदर्भ में ‘यात्रा के संदर्भ में, पर्वतीय क्षेत्र के संदर्भ में’ और कल्पना से रचित आकर। गोवा में ‘मट्टन चेरी पैलेस’ के शिल्प मेरे मन में अभी तक छाए हुए हैं जिन्हें मौका मिलने पर पूर्ण करने की ललक बराबर विद्यमान है। कवि, चित्रकार एवं साहित्यकार के अलावा आप एक पुरातत्ववेत्ता भी हैं, इसकी प्रेरणा आपको कहां से और कैसे प्राप्त हुई? जननी जन्म भूमिश्च सवर्गादपि गरीयस-वाल्मीकी रामायण का यह कथन मुझे निरंतर प्रेरणा देता रहा है। मेरी जन्मभूमि इलाहाबाद (हरदोई, उ0प्र0) ने मुझे मृणमूर्तियों का अभूतपूर्व संग्रह करने की प्रेरणा दी और आज वही मेरे तलघर में सुरक्षित है। मेरी कविता, चित्र तथा साहित्य के संदर्भ में अब तक अनेकों पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है किंतु परातत्व पर एक भी पुस्तक प्रकाशित नहीं हुई। जबकि ऐसा होने से ज्ञान के क्षेत्र में व्याप्त बहुत-सा अभाव दूर हो सकता था। पटना, राजघाट, मथुरा, कन्नौज आदि क्षेत्रों से जो मृणमूर्तियां संग्रहालय में प्रदर्शित है, उनमें से बहुत सी ऐसी है जिनकी पहचान मेरे संग्रह से विधिवत हो सकती है और कुछ ऐसी अद्भुत मृणमूर्तियां हैं जो कदाचित किसी अन्य संग्रह में नहीं हैं जैसे ’मत्सयवाहिनी गंगा।’ एक साहित्यकार के लिए पुरस्कार का क्या महत्व है? पुरस्कार या सम्मान को मैं प्रतिफल मानता हूँ , फल नहीं। ‘काव्य यश से ऽकृते, व्यवहारविदे शिवेतर क्षतये’ इसका आशय यह है कि काव्य यश, अर्थ और कल्याण (शिवत्व) से जुड़कर अशिव की क्षति करता है। शिव कल्याणकारी रूप् में कविता से निरंतर जुड़ा रहा है, संस्कृति और समाज दोनों व्यक्ति-केन्द्रित जीवन दृष्टि से सार्थकता ग्रहण करते हैं। कला और कविता सामूहिक रचना होती। शिल्प अवश्य कभी-कभी सामूहिक रचना से रचा जाता है। आज के उदीयमान रचनाकारों के लिए कोई संदेश देना चाहेंगे? मुझसे आगे आने वालों से एक संदेश मेरा, तुमसे एक संदेश मेरा- इसके लिए मैं अपनी कविता ’कवि’ गीत की कुछ पंक्ति प्रस्तुत करना चाहूंगाः शांति मन में, क्रांति का संकल्प लेकर टिकी हो..... क्हीं भी गिरवी न हो ईमान जिसका, कहीं भी प्रज्ञा न जिसकी बिकी हो। जो निरंतर नई रचनाधर्मिता से रहे पूरित लेखनी जिसकी, कलुष में डूबकर भी, विशद उज्जवल कीर्तिलाभ लहे! कवि वही जो अकथनीय कहे! किंतु सारी मुखरता के बीच मौन रहे! कवि वही जो अकथनीय कहे .......।
कवि चित्रकार जगदीश गुप्त से धनंजय चोपड़ा की बातचीत कवि व चित्रकार जगदीश गुप्त भले ही अपने जीवन के पचहत्तर वर्ष पूरे करने जा रहे हों, पर अपनी संवेदनाओं को व्यक्त करने का एक भी अवसर नहीं गंवाना चाहते। वह आज भी उतने ही सक्रिय हैं जितने अपने युवा दिनों में थे। जगदीश गुप्त ने कविता का संस्कार यदि माखन लाल चतुर्वेदी से प्राप्त किया तो लगभग तीस वर्ष महाप्राण निराला के साथ बिताए। यही कारण है कि उनकी वाणी और व्यवहार में उसी तरह की फक्कड़ता और सृजन के प्रति समर्पण भाव देखने को मिलता है। गुप्त जी ने हिन्दी साहित्य को यदि ’नई कविता’ दी है तो चित्रकला को कवि हृदय की संवेदनाओं से सहेजा भी है। प्रगैतिहासिक चित्रकला के स्वतः प्रेरित विशिष्ट अनुशीलन क्रम में भारत के अज्ञात शिलाश्रयों एवं गुफाओं की खोज करने और शिलाचित्रों की अनुकृतियों का अंकन करने का महत्वपूर्ण कार्य भी उन्होंने किया है। उत्तर प्रदेश सरकार ने उन्हें हाल ही में ’भारत भारती’ सम्मान प्रदान किया है। प्रस्तुत है जगदीश गुप्त से बातचीत: प्रश्नः आप अपने को कवि अधिक मानते है या फिर चित्रकार? उत्तरः कविता और चित्रकला दोनों युगपथ के रूप में मेरे भीतर एक स्त्रोत के रूप में प्रवाहित होते रहे हैं। कविता मेरे लिए अलग से प्रेरणा स्त्रोत कभी नहीं रही। यही नहीं, समग्र दृष्टि मेरी कविता व चित्रकला तक ही सीमित नहीं है, प्रागैतिहासिक चित्र भी मुझे निरंतर प्रेरित करते रहे हैं। जड़ों तक जाने की प्रेरणा मेरे भीतर आरंभ से ही रही है। वास्तव में अतीत में फैली हुई जड़ों तक पहुंचकर उसके निजी रूप को पहचानना तथा उसे नई चेतना प्रदान करना आवश्यक है। मेरा मानना है कि चित्रकला सभी कलाओं की आंख है। एक समय निराला, पंत, महादेवी का था और एक आज का समय है। आप तो दोनों ही समय के साक्षी रहे हैं। कैसा बदलाव पाते हैं? बदलाव तो बहुत आ गया है। वास्तविकता यह है कि परिवेश की चेतना प्रेरणा देती है किन्तु वह प्रेरणा का स्त्रोत नहीं होती। अंतर्जगत में कुछ निरंतर घटित होता रहता है, जिसमें एक बेचैनी होती है अकथनीय को कह डालने की। मेरा मानना है कि रचना प्रक्रिया केवल श्रमात्मक नहीं होती है। निराला जी ने कठिन से कठिन परिस्थितियों में किसी कर्म को हेय नहीं माना। उसके भीतर उत्सर्ग की भावना थी। वह समाज से जो लेना चाहते थे, लेते थे लेकिन भीतर समाज को उससे कहीं अधिक देने की भावना निहित थी। ऐसे ही लोगों से बना था उस समय का साहित्यिक परिवेश। अब ऐसा कम ही देखने को मिलता है। साहित्य व समाज के रिश्ते पर आपके क्या विचार हैं। समाज पर साहित्य का प्रभाव इस बात पर निर्भर करता है उस समाज का व्यक्ति समाज, संस्कृति व जीवन के प्रति क्या दृष्टिकोण रखता है। फिलहाल यह तो कहा ही जा सकता है कि साहित्य का समाज पर प्रभाव लगातार कम होता जा रहा है। संचार क्रांति के चलते लोगों में पुस्तक पढ़ने की आदत कम होती जा रही है। दूसरी ओर यह भी कहना पड़ेगा कि साहित्य का समाज पूरा समाज नहीं होता। जो समाज भाषा की बारीकियों तक जाता है वह साहित्य का समाज होता है। साहित्य और समाज में गिरते मूल्यों पर आपके क्या विचार है? स्वतंत्रता की लड़ाई के दौरान एक अद्वितीय प्रेरणा कार्य कर रही थी, जिसमें उत्सर्ग और बलिदान की भावना सर्वोपरि थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद वह स्थिति नहीं रही। कुछ लोगों का कहना है कि ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में विवश होकर अंग्रेजों को स्वतंत्रता देनी पड़ी, किन्तु औपनिवेशिकता आज भी भारतीय जनमानस में समाप्त नहीं हुई। यह विडम्बना नहीं तो और क्या है कि राष्ट्रभाषा के स्थान पर हिन्दी को राजभाषा का रूप प्राप्त हुआ और वह भी 14 सितंबर की औपचारिकता के साथ। देश उत्तरोत्तर विडंबनाओं से ग्रस्त होता जा रहा है। गरीबी की रेखा की चिंता तो बहुतों को है किंतु उच्च वर्ग उसे बनाए रखने में ही अपना हित समझता है। वास्तव में आज की मानसिकता खंडित मानसिकता है और इसी के चलते ही मेरा नया कविता संग्रह आक्रोश के पंजे उत्पन्न हुआ है। वास्तविकता तो यह है कि पहले आक्रोश विदेशियों के प्रति था और अब आक्रोश अपने ही लोगों के प्रति है। ये सारी स्थितियां असाधारण हैं। साहित्य और कला अपने को नई तरह से परभाषित करने को बाध्य है। इधर कुछ वर्षों में ’चरित्र हनन’ का आरोप सहने वाली रचनाओं का सृजन अधिक हुआ है। इसे आप किस रूप में देखते हैं। साहित्य का सौंदर्यबोध एक आंतरिक विवेक से परिचालित होता है, जिसमें शिव और अशिव दोनों की पहचान होती है। सौंदर्य की धारणा सत्य पर आधारित है लेकिन फिर भी शिव की चिंता करना मात्र ही अशिव से मुक्ति का रास्ता नहीं है। वास्तविकता तो यह है कि जीवन में समग्रता किसी बड़े साहित्य में प्रेरणादायक होती है और साहित्यकार की विवेकशीलता इसी से पहचानी जाती है। रचनाकर्म से जुड़े संगठनों पर आपके विसचार है? सच तो यह है कि रचना कर्म से जुड़े संगठनों में विघटन अधिक है, संगठन कम। जितनी संस्थाएं हैं, उनका विकास गोष्ठियों में तो मिल जाता है लेकिन बाहर अजीब-से खालीपन का शिकार हैं ये संस्थाएं। वास्तव में साहित्य मुक्त एवं स्वातंत्र भाव से होना चाहिए। हम लोगों ने ’परिमल’ संस्था गठित करके इसी भाव को महत्व दिया। यहां मैं यह कहना जरूरी समझता हूं कि ’परिमल’ खत्म नहीं हुआ, हमने खत्म किया उसे। मैं हमेशा यह कहता हूं कि फूल खिलते-खिलते मुरझाने लगता है तो उसे रखने का कोई औचित्य नहीं रह जाता। नई कविता आंदोलन में आपने अग्रणी भूमिका निभाई। इस संदर्भ में भी कुछ बताइए। निराला जी कविता को सनयन कहते थे और यह बात मेरे मन को गहराई से स्पर्श करती थी। कविता केवल सुनने की वस्तु नहीं है, देखने की भी वस्तु है। ’नई कविता’ में मैंने इस बात का ध्यान में रखकर बिंब विधान पर विशेष बल दिया, ठीक वैसे ही जैसे छायावाद में प्रतीकों को केंद्र में माना गया। मेरा स्वाभाव कविता को नए-पुराने रूप में विखंडित करने का कभी नहीं रहा। ’नई कविता’ को ध्यान में रखकर मैंने पुस्तक भी प्रकाशित की। ’नई कविता’ का पहला अंक सन 54 में प्रकाशित हुआ और आठवां सन 67 में। कवियों का इतना अदृश्य सहयोग मिला कि मैं स्वयं चकित था। नई कविता के लिए मुझे नया सौंदर्यशास्त्र रचना पड़ा क्योंकि नये शब्द की परिभाषा नए रूप में करने का आग्रह था। ’न्यू पोयट्री’ की पाश्चात्य धारणा ठीक वैसी नहीं थीं जैसी कि ’नई कविता’ में आई। भरतेंदु से लेकर मैथिलीशरण गुप्त तक और फिर गुप्त जी से लेकर अज्ञेय तक, दृष्टियां बदलती रहीं। तार सप्तक के चार संकलन हिंदी कविता के ऐतिहासिक दस्तावेज हैं। त्रयी के रूप में मैने भी तीन संकलन प्रकाशित किए और चैथा-पांचवा आगे आने को है। नई पीढ़ी के प्रति आप कितने आशावान हैं? मुझे नई पीढ़ी से बहुत अधिक आशाएं हैं। वास्तव में हर कवि पुरातन को देखता है किंतु अपनी वाणी की सार्थकता भविष्य में पहचानता है। काल की चेतना अखंड होती है नहीं तो साहित्य की लयात्मकता खंडित हो जाती है।
जगदीश जी के लिए कविता अभिव्यक्ति का एक माध्यम रही तो चित्रकला दूसरा। उनके काव्य सृजन में चित्रों की अकथनीयता शब्दों का रूप ले लेती रही तो चित्र रचना में कविता का सत्व समाहित हो जाता रहा। यद्यपि बहुत-सी चीजें शब्दातीत होकर उन्हें झंकृत करती रहीं, पर कई बार भावाभिव्यक्ति के लिए शब्द उन्हें छोटे मालूम पड़ते रहे और रेखाएं, रंग और आकृतियां बड़ी। बस शायद इसीलिए गुप्त जी की लेखनी और तूलिका से सृजित सर्जनात्मक सृष्टि में कविता और चित्रकला समानांतर होते हुए भी कदाचित चित्रात्मक बड़ी हो जाती थी और चित्रकार जगदीश गुप्त, कवि जगदीश गुप्त से गुरूतर। पिछले दिनों लंबी बीमारी के बाद उनका निधन हो गया। प्रस्तुत है, कवि, चित्रकार जगदीश गुप्त के बहुआयामी व्यक्तित्व का परिचय अनिल सिद्धार्थ द्वारा— “कला मेरे लिए बहुलोचना नदी है और कविता अभिव्यक्ति की चुनौती। कला पहले व्यक्ति से व्यक्ति को जोड़ती है और फिर व्यक्ति को समाज से। इसीलिए व्यक्ति और समाज, शब्द और अर्थ मेरी दृष्टि में अर्द्धनारीश्वर की तरह अन्योन्याश्रित है”| कला और कविता के अंतर्सबंधों को रेखांकित करते इन विचारों के प्रबल पक्षधर प्रख्यात कवि व चित्रकार जगदीश गुप्त अब दैहिक रूप से हमारे बीच नहीं रहे। अद्भुत जिजीविषा के धनी डा0 गुप्त बार-बार मौत को मुंह चिढ़ाते रहे। पर गत 26 मई की भोर में उन्होंने अंतिम सांस ली और हमेशा के लिए अपनी आंखे मूंद ली। पहले मध्य प्रदेश के मैथिलीशरण गुप्त सम्मान और फिर उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के भारत भारती सम्मान से सम्मानित डा0 गुप्त के लिए कविता अभिव्यक्ति का एक माध्यम रही तो चित्रकला दूसरा। उनके काव्य सृजन में चित्रों की अकथनीयता शब्दों का रूप ले लेती रही तो चित्र रचना में कविता का सत्व समाहित हो जाता रहा। यद्यपि बहुत-सी चीजें शब्दातीत होकर उन्हें झंकृत करती रहीं, पर कई बार भावाभिव्यक्ति के लिए शब्द उन्हें छोटे मालूम पड़ते रहे और रेखाएं, रंग और आकृतियां बड़ी। बस शायद इसीलिए गुप्त जी की लेखनी और तूलिका से सृजित सर्जनात्मक सृष्टि में कविता और चित्रकला समानांतर होते हुए भी कदाचित चित्रात्मक बड़ी हो जाती थी और चित्रकार जगदीश गुप्त, कवि जगदीश गुप्त से गुरूतर। सन् 1924 में शाहाबाद, हरदोई में जन्में जगदीश गुप्त ने मुख्यतः इलाहाबाद को ही अपना कर्मक्षेत्र बनाया और अपने घर के ठीक पास गंगा किनारे स्थित नागवासुकि मंदिर के अहाते में या फिर सीढ़ियों पर बैठकर गंगा के शांत, सौम्य और सौंदर्यमूलक सान्निध्य में उन्होंने अपने भावों को शब्द दिए तो रेखाओं और रंगों से उन्हें एक संपूर्ण आकार-प्रकार भी। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम0ए0, डी0 फिल व चित्रकला एवं संस्कृत में डिप्लोमा करने के बाद उन्होंने साहित