एक धज वासू के लिए
वह सोफ़े पर लेटा है।
कभी-कभी जब लाज सताती।
खींच-खाँच मच जाती।
झोंक चढ़ी तो पूरा नंगा।
चिढ़ने पर कर देता दंगा।
काला डोरा, बना करधनी
नज़र बचाता नेत्र वंदनी
नंगा फिर भी सुन्दर लगता।
बचपन सबके भीतर रहता।
मेरी चुम्मी लेता वासू
अपने पतले होठों से छू
तुरत उड़न छू होता वासू
नन्हें-नन्हें दाँत झलकते
पानी में ज्यों कमल चमकते
वासू मेरा बना जलाशय।
कौन समझ पायेगा आशय।
एक धज वासू के लिए
कभी नोचता, कभी खीझता।
मनमानी का रूप बचपना।
ईश्वर की छाया सा लगता।
मिर्चा टूँग लेता है
और जब जुबान पर
लगाने लगता है तो
सिर घुमाने लगता
पहले डरता था
अब वासू मिर्चे से डरता नहीं
कचर कचर करके खा जाता है।